श्री कामाख्या चालीसा
श्री कामाख्या चालीसा
श्री कामाख्या चालीसा में माँ कामाख्या की स्तुति की गई है। माँ कामाख्या या कामेश्वरी इच्छा की प्रसिद्ध देवी हैं जिनका प्रसिद्ध मंदिर उत्तर पूर्व भारत के असम राज्य की राजधानी गुवाहाटी के पश्चिमी भाग में स्थित नीलाचला पहाड़ी के मध्य में स्थित है। माँ कामाख्या देवालय को पृथ्वी पर 52 शक्तिपीठों में से सबसे पवित्र और सबसे पुराना माना जाता है।
पुराणों के अनुसार पिता दक्ष के यज्ञ में पति शिव का अपमान होने के कारण सती हवनकुंड में ही कूद पड़ी थीं जिसके शरीर को शिव कंधे पर दीर्घकाल तक डाले फिरते रहे। ये सब देखकर श्री हरी विष्णु ने माता सती के उस शरीर के चक्र के द्वारा 52 भाग कर दिए और जहाँ-जहाँ ये अंग गिरे वहाँ-वहाँ शक्तिपीठ बन गए तथा वो शक्तिपीठ एक देवी के रूप मे परिवर्तित हो गया और जहाँ जहाँ माँ का योनि अंग गिरा उस जगह पर माता कामाख्या का प्रसिद्ध शक्तिपीठ बना। यह भारत में व्यापक रूप से प्रचलित, शक्तिशाली तांत्रिक शक्तिवाद पंथ का केंद्रबिंदु है।
॥ दोहा ॥
सुमिरन कामाख्या करुँ, सकल सिद्धि की खानि ।
होइ प्रसन्न सत करहु माँ, जो मैं कहौं बखानि ॥
॥ चौपाई ॥
जै जै कामाख्या महारानी । दात्री सब सुख सिद्धि भवानी ॥१॥
कामरुप है वास तुम्हारो । जहँ ते मन नहिं टरत है टारो ॥२॥
ऊँचे गिरि पर करहुँ निवासा । पुरवहु सदा भगत मन आसा ॥३॥
ऋद्धि सिद्धि तुरतै मिलि जाई । जो जन ध्यान धरै मनलाई ॥४॥
जो देवी का दर्शन चाहे । हदय बीच याही अवगाहे ॥५॥
प्रेम सहित पंडित बुलवावे । शुभ मुहूर्त निश्चित विचारवे ॥६॥
अपने गुरु से आज्ञा लेकर । यात्रा विधान करे निश्चय धर ॥७॥
पूजन गौरि गणेश करावे । नान्दीमुख भी श्राद्ध जिमावे ॥८॥
शुक्र को बाँयें व पाछे कर । गुरु अरु शुक्र उचित रहने पर ॥९॥
जब सब ग्रह होवें अनुकूला । गुरु पितु मातु आदि सब हूला ॥१०॥
नौ ब्राह्मण बुलवाय जिमावे । आशीर्वाद जब उनसे पावे ॥११॥
सबहिं प्रकार शकुन शुभ होई । यात्रा तबहिं करे सुख होई ॥१२॥
जो चह सिद्धि करन कछु भाई । मंत्र लेइ देवी कहँ जाई ॥१३॥
आदर पूर्वक गुरु बुलावे । मन्त्र लेन हित दिन ठहरावे ॥१४॥
शुभ मुहूर्त में दीक्षा लेवे । प्रसन्न होई दक्षिणा देवै ॥१५॥
ॐ का नमः करे उच्चारण । मातृका न्यास करे सिर धारण ॥१६॥
षडङ्ग न्यास करे सो भाई । माँ कामाक्षा धर उर लाई ॥१७॥
देवी मन्त्र करे मन सुमिरन । सन्मुख मुद्रा करे प्रदर्शन ॥१८॥
जिससे होई प्रसन्न भवानी । मन चाहत वर देवे आनी ॥१९॥
जबहिं भगत दीक्षित होइ जाई । दान देय ऋत्विज कहँ जाई ॥२०॥
विप्रबंधु भोजन करवावे । विप्र नारि कन्या जिमवावे ॥२१॥
दीन अनाथ दरिद्र बुलावे । धन की कृपणता नहीं दिखावे ॥२२॥
एहि विधि समझ कृतारथ होवे । गुरु मन्त्र नित जप कर सोवे ॥२३॥
देवी चरण का बने पुजारी । एहि ते धरम न है कोई भारी ॥२४॥
सकल ऋद्धि-सिद्धि मिल जावे । जो देवी का ध्यान लगावे ॥२५॥
तू ही दुर्गा तू ही काली । माँग में सोहे मातु के लाली ॥२६॥
वाक् सरस्वती विद्या गौरी । मातु के सोहैं सिर पर मौरी ॥२७॥
क्षुधा, दुरत्यया, निद्रा तृष्णा । तन का रंग है मातु का कृष्णा ॥२८॥
कामधेनु सुभगा और सुन्दरी । मातु अँगुलिया में है मुंदरी ॥२९॥
कालरात्रि वेदगर्भा धीश्वरि । कंठमाल माता ने ले धरि ॥३०॥
तृषा सती एक वीरा अक्षरा । देह तजी जानु रही नश्वरा ॥३१॥
स्वरा महा श्री चण्डी । मातु न जाना जो रहे पाखण्डी ॥३२॥
महामारी भारती आर्या । शिवजी की ओ रहीं भार्या ॥३३॥
पद्मा, कमला, लक्ष्मी, शिवा । तेज मातु तन जैसे दिवा ॥३४॥
उमा, जयी, ब्राह्मी भाषा । पुर हिं भगतन की अभिलाषा ॥३५॥
रजस्वला जब रुप दिखावे । देवता सकल पर्वतहिं जावें ॥३६॥
रुप गौरि धरि करहिं निवासा । जब लग होइ न तेज प्रकाशा ॥३७॥
एहि ते सिद्ध पीठ कहलाई । जउन चहै जन सो होई जाई ॥३८॥
जो जन यह चालीसा गावे । सब सुख भोग देवि पद पावे ॥३९॥
होहिं प्रसन्न महेश भवानी । कृपा करहु निज-जन असवानी ॥४०॥
॥ दोहा ॥
कर्हे गोपाल सुमिर मन, कामाख्या सुख खानि ।
जग हित माँ प्रगटत भई, सके न कोऊ खानि ॥