श्री लक्ष्मी सूक्त

श्री लक्ष्मी सूक्त

श्री लक्ष्मी सूक्त

श्री लक्ष्मी सूक्त उपासना के लिए ऋग्वेद में वर्णित एक स्तोत्र है। पन्द्रह ऋचाएं (माहात्म्य सहित सोलह ऋचाएं) मूल रचना मानी गयी हैं। श्री सूक्तम के 17-37 मन्त्र को श्री लक्ष्मी सूक्त कहते हैं। श्री लक्ष्मी सूक्त को श्री सूक्त का परिशिष्ट माना जाता है। यह श्रीसूक्त का ही एक भाग है, जिसमें मां लक्ष्मी के गुणों की व्याख्या बहुत सुंदर शब्दों में की गई है।

श्री सूक्त का पाठ महालक्ष्मी की प्रसन्नता एवं उनकी कृपा प्राप्त कराने वाला है साथ ही व्यापार में वृद्धि, ऋण से मुक्ति और धन प्राप्ति के लिए भी इसका पाठ तथा अनुष्ठान किया जाता है। यह माना जाता है की श्रद्धा एवं विश्वास के साथ इस स्तोत्र का पाठ करने वाले व्यक्ति पर माता लक्ष्मी कृपा करती हैं। लक्ष्मी जी की कृपा होने पर व्यक्ति सिर्फ धन और ऐश्वर्य ही नहीं बल्कि यश एवं कीर्ति भी प्राप्त करता है।

॥ श्री सूक्त ॥

हरिः ॐ हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्रजाम् ।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह ॥१॥

तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् ।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम् ॥२॥

अश्वपूर्वां रथमध्यां हस्तिनादप्रबोधिनीम् ।
श्रियं देवीमुपह्वये श्रीर्मा देवी जुषताम् ॥३॥

कां सोस्मितां हिरण्यप्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम् ।
पद्मे स्थितां पद्मवर्णां तामिहोपह्वये श्रियम् ॥४॥

चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देवजुष्टामुदाराम् ।
तां पद्मिनीमीं शरणमहं प्रपद्येऽलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणे ॥५॥

आदित्यवर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः ।
तस्य फलानि तपसानुदन्तु मायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः ॥६॥

उपैतु मां देवसखः कीर्तिश्च मणिना सह ।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन् कीर्तिमृद्धिं ददातु मे ॥७॥

क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाशयाम्यहम् ।
अभूतिमसमृद्धिं च सर्वां निर्णुद मे गृहात् ॥८॥

गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम् ।
ईश्वरींग् सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम् ॥९॥

मनसः काममाकूतिं वाचः सत्यमशीमहि ।
पशूनां रूपमन्नस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः ॥१०॥

कर्दमेन प्रजाभूता मयि सम्भव कर्दम ।
श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्ममालिनीम् ॥११॥

आपः सृजन्तु स्निग्धानि चिक्लीत वस मे गृहे ।
नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले ॥१२॥

आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं पिङ्गलां पद्ममालिनीम् ।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह ॥१३॥

आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं सुवर्णां हेममालिनीम् ।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह ॥१४॥

तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् ।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पूरुषानहम् ॥१५॥

यः शुचिः प्रयतो भूत्वा जुहुयादाज्यमन्वहम् ।
सूक्तं पञ्चदशर्चं च श्रीकामः सततं जपेत् ॥१६॥

॥ फलश्रुति ॥
पद्मानने पद्म ऊरु पद्माक्षी पद्मासम्भवे ।
त्वं मां भजस्व पद्माक्षी येन सौख्यं लभाम्यहम् ॥१७॥

अश्वदायि गोदायि धनदायि महाधने ।
धनं मे जुषतां देवि सर्वकामांश्च देहि मे ॥१८॥

पुत्रपौत्र धनं धान्यं हस्त्यश्वादिगवे रथम् ।
प्रजानां भवसि माता आयुष्मन्तं करोतु माम् ॥१९॥

धनमग्निर्धनं वायुर्धनं सूर्यो धनं वसुः ।
धनमिन्द्रो बृहस्पतिर्वरुणं धनमश्नुते ॥२०॥

वैनतेय सोमं पिब सोमं पिबतु वृत्रहा ।
सोमं धनस्य सोमिनो मह्यं ददातु सोमिनः ॥२१॥

न क्रोधो न च मात्सर्य न लोभो नाशुभा मतिः ।
भवन्ति कृतपुण्यानां भक्तानां श्रीसूक्तं जपेत्सदा ॥२२॥

वर्षन्तु ते विभावरि दिवो अभ्रस्य विद्युतः ।
रोहन्तु सर्वबीजान्यव ब्रह्म द्विषो जहि ॥२३॥

पद्मप्रिये पद्मिनि पद्महस्ते पद्मालये पद्मदलायताक्षि ।
विश्वप्रिये विष्णु मनोऽनुकूले त्वत्पादपद्मं मयि सन्निधत्स्व ॥२४॥

या सा पद्मासनस्था विपुलकटितटी पद्मपत्रायताक्षी ।
गम्भीरा वर्तनाभिः स्तनभर नमिता शुभ्र वस्त्रोत्तरीया ॥२५॥

लक्ष्मीर्दिव्यैर्गजेन्द्रैर्मणिगणखचितैस्स्नापिता हेमकुम्भैः ।
नित्यं सा पद्महस्ता मम वसतु गृहे सर्वमाङ्गल्ययुक्ता ॥२६॥

लक्ष्मीं क्षीरसमुद्र राजतनयां श्रीरङ्गधामेश्वरीम् ।
दासीभूतसमस्त देव वनितां लोकैक दीपांकुराम् ॥२७॥

श्रीमन्मन्दकटाक्षलब्ध विभव ब्रह्मेन्द्रगङ्गाधराम् ।
त्वां त्रैलोक्य कुटुम्बिनीं सरसिजां वन्दे मुकुन्दप्रियाम् ॥२८॥

सिद्धलक्ष्मीर्मोक्षलक्ष्मीर्जयलक्ष्मीस्सरस्वती ।
श्रीलक्ष्मीर्वरलक्ष्मीश्च प्रसन्ना मम सर्वदा ॥२९॥

वरांकुशौ पाशमभीतिमुद्रां करैर्वहन्तीं कमलासनस्थाम् ।
बालार्क कोटि प्रतिभां त्रिणेत्रां भजेहमाद्यां जगदीस्वरीं त्वाम् ॥३०॥

सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके ।
शरण्ये त्र्यम्बके देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥
नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ नारायणि नमोऽस्तु ते ॥३१॥

सरसिजनिलये सरोजहस्ते धवलतरांशुक गन्धमाल्यशोभे ।
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीद मह्यम् ॥३२॥

विष्णुपत्नीं क्षमां देवीं माधवीं माधवप्रियाम् ।
विष्णोः प्रियसखीं देवीं नमाम्यच्युतवल्लभाम् ॥३३॥

महालक्ष्मी च विद्महे विष्णुपत्नी च धीमहि ।
तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात् ॥३४॥

श्रीवर्चस्यमायुष्यमारोग्यमाविधात् पवमानं महियते ।
धनं धान्यं पशुं बहुपुत्रलाभं शतसंवत्सरं दीर्घमायुः ॥३५॥

ऋणरोगादिदारिद्र्यपापक्षुदपमृत्यवः ।
भयशोकमनस्तापा नश्यन्तु मम सर्वदा ॥३६॥

य एवं वेद ।
ॐ महादेव्यै च विद्महे विष्णुपत्नी च धीमहि ।
तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात्
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥३७॥

सूतक का अर्थ:

  • हे जातवेदा (सर्वज्ञ) अग्निदेव ! आप मेरे लिये सुवर्ण के रंग वाली, सोने और चाँदी के माला धारण करने वाली, चन्द्रमा के समान प्रसन्नकांति, स्वर्णमयी लक्ष्मीदेवी को आवाहन और अभिमुख करें ॥1॥
  • हे जातवेदा अग्निदेव ! आप उन जगत प्रसिद्ध लक्ष्मीदेवी को मेरे लिये आवाहन करें जिनके आगमन से मैं सुवर्ण, गौ, अश्व और पुत्रादि को प्राप्त करूँगा ॥2॥
  • जिस देवी के आगे घोड़े तथा उनके मध्य में रथ जुते रहते हैं तथा ऐसे रथ में बैठी हुई जो हथियो की निनाद को सुनकर प्रमुदित होती हैं, उन्हीं श्रीदेवी का मैं आवाहन करता हूँ; लक्ष्मीदेवी मुझे प्राप्त हों ॥3॥
  • जिसका स्वरूप ब्रह्मरूपा होने के कारण अवर्णनीय है तथा जो मंद मंद मुसकराने वाली है, जो चारों ओर सोने के आवरण से ओत प्रोत है एवं दया से आद्र ह्रदय वाली तेजोमयी हैं, स्वयं पूर्णकाम होने के कारण भक्तो के मनोरथों को पूर्ण करने वाली हैं, कमल के ऊपर विराजमान तथा पद्मवर्णा हैं, मैं उन लक्ष्मीदेवी का आवाहन करता हूँ ॥4॥
  • मैं चंद्रमा के समान प्रकाश वाली प्रकृत कान्तिवाली, अपनी कीर्ति से देदीप्यमान, स्वर्ग लोक में इन्द्रादि देवों से पूजित अत्यंत दानशीला, कमल के मध्य रहने वाली एवं अश्रयदाती की शरण ग्रहण करता हूँ। उन लक्ष्मी को मैं प्राप्त करता हूँ और आपको शरण्य के रूप में वरण करता हूँ ॥5॥
  • हे सूर्य के समान कांति वाली देवी आपके तेजोमय प्रकाश से वृक्षों में श्रेष्ठ मंगलमय बिल्ववृक्ष उत्पन्न हुआ। उस बिल्व वृक्ष का फल मेरे बाहरी और भीतरी दरिद्रता को दूर करें ॥6॥
  • हे लक्ष्मी ! मुझे उत्तम यश, रत्न, धन आदि के साथ देवताओं के सखा कुबेर और उनके मित्र मणिभद्र प्राप्त हों अर्थात मुझे धन और यश की प्राप्ति हो। मैं इस राष्ट्र (संसार) में जन्म लिया है, अतः हे लक्ष्मी आप मुझे इसके गौरव के अनुरूप यश, समृद्धि और एश्वर्य प्रदान करें ॥7॥
  • मैं भूख प्यास आदि शारीरिक मलिनता को धारण करने वाली एवं लक्ष्मी की बड़ी बहन अलक्ष्मी (दरिद्रता) का सदा के लिए विनाश करता हूं। हे लक्ष्मी! तुम मेरे घर से सभी प्रकार की असमृद्धि, दु:ख, अनैश्वर्य और अभाव को दूर भगाओ ॥8॥
  • मैं सुगंधित द्रव्यों के अर्पण से प्रसन्न करने योग्य, किसी भी शक्तिशाली से न जीतने योग्य, सदा धन धान्यादि देकर अपने शरणागत भक्तों की इच्छा पूर्ण करनेवाली और संसार के समस्त प्राणियों की शासिका-स्वामिनी लक्ष्मी देवी को अपने यहां आवाहन करता हूं ॥9॥
  • हे लक्ष्मी ! मुझे मन की कामनाओं एवं संकल्प सिद्धि, वाणी की सत्यता, गौ आदि पशुओ एवं अन्नों के रूप सभी पदार्थ प्राप्त हो। सम्पति और यश आश्रय ले अर्थात श्रीदेवी हमारे यहाँ आगमन करें ॥10॥
  • लक्ष्मी के पुत्र कर्दम की हम संतान हैं। हे कर्दम ! मेरे घर में लक्ष्मी निवास करें, केवल इतनी ही प्रार्थना नहीं है अपितु कमल की माला धारण करने वाली संपूर्ण संसार की माता लक्ष्मी को मेरे कुल में प्रतिष्ठित करें ॥11॥
  • जिस प्रकार वरुणदेव स्निग्ध द्रव्यों को उत्पन्न करते है ( जिस प्रकार जल से स्निग्धता आती है ), उसी प्रकार, हे लक्ष्मीपुत्र चिक्लीत ! आप मेरे घर में निवास करें और दिव्यगुणयुक्ता श्रेयमान माता लक्ष्मी को मेरे कुल में निवास करायें ॥12॥
  • हे अग्निदेव, आप मेरे लिए हाथियों के शुण्डाग्र से अभिषिक्त अतएव आर्द्र शरीर वाली, कमल-पुष्करिणी, पुष्टिकारिणी, पीतवर्णा, कमल की माला धारण करने वाली, चन्द्रमा के समान स्वर्णिम आभा वाली लक्ष्मी देवी का आवाहन करें ॥13॥
  • हे अग्निदेव! जो दुष्टों का निग्रह करने वाली होने पर भी दयाभाव से आर्द्रचित्त हैं, जो मंगलदायिनी, अवलम्बन प्रदान करने वाली यष्टिरूपा हैं, सुन्दर वर्णवाली, सुवर्णमालाधारिणी, सूर्यस्वरूपा तथा हिरण्यमयी हैं, उन प्रकाशस्वरूपा लक्ष्मी का मेरे लिए आवाहन करें ॥14॥
  • हे अग्निदेव! कभी नष्ट न होने वाली उन स्थिर लक्ष्मी का मेरे लिए आवाहन करें जो मुझे छोड़कर अन्यत्र नहीं जाने वाली हों, जिनके आगमन से बहुत-सा धन, उत्तम ऐश्वर्य, गौएं, दासियां, अश्व और पुत्रादि को हम प्राप्त करें ॥15॥
  • जो नित्य पवित्र और संयमशील होकर इस पंचदश (15) ऋचा वाले सूक्त से भक्तिपूर्वक घी की आहुति देता है और इसका पाठ ( जप ) करता है, उसकी श्री लक्ष्मी की कामना पूर्ण होती है ॥16॥
  • हे लक्ष्मी देवी! आप कमल के समान मुखमण्डल वाली, कमल पुष्प पर विराजमान, कमल-दल के समान नेत्रों वाली, कमल पुष्पों को पसंद करने वाली, कमल से आविर्भूत होनेवाली हैं। सृष्टि के सभी जीव आपकी कृपा की कामना करते हैं। आप सबको मनोनुकूल फल देने वाली हैं। हे देवी! आपके चरण-कमल सदैव मेरे हृदय में स्थित हों ॥17॥
  • हे देवी! अश्व, गौ, धन आदि देने में आप समर्थ हैं। आप मुझे धन प्रदान करें। हे माता! मेरी सभी कामनाओं को आप पूर्ण करें, मुझे सभी अभिलषित वस्तुएँ प्रदान करें ॥18॥
  • हे देवी! आप सृष्टि के समस्त जीवों की माता हैं। आप मुझे पुत्र-पौत्र, धन-धान्य, हाथी-घोड़े, गौ, बैल, रथ आदि प्रदान करें। आप मुझे दीर्घ-आयुष्य बनाएँ ॥19॥
  • हे लक्ष्मी! आप मुझे अग्नि, इन्द्र, वायु, सूर्य, जल, बृहस्पति, वरुण आदि की कृपा द्वारा धन की प्राप्ति कराएँ ॥20॥
  • हे वैनतेय पुत्र गरुड़! वृत्रासुर के वधकर्ता, इंद्र, आदि समस्त देव जो अमृत पीने (सोमपान) वाले हैं, मुझे अमृतयुक्त धन प्रदान करें ॥21॥
  • श्री सूक्त का भक्तिपूर्वक जप करनेवाले, पुण्यशाली लोगों को न क्रोध होता है, न ईर्ष्या होती है, न लोभ ग्रसित कर सकता है और न उनकी बुद्धि दूषित ही होती है। वे सत्कर्म की ओर प्रेरित होते हैं ॥22॥
  • हे माँ, मेघों से भरे आकाश में बिजली की तरह अपनी कृपा का प्रकाश बरसाओ। और भेदभाव के सभी बीजों को एक उच्च आध्यात्मिक स्तर पर चढ़ाएं। हे माता, आप ब्रह्मस्वरूप हैं और सभी द्वेषों का नाश करने वाली हैं ॥23॥
  • हे लक्ष्मी देवी! आप कमलमुखी, कमल पुष्प पर विराजमान, कमल-दल के समान नेत्रों वाली, कमल पुष्पों को पसंद करने वाली, भगवान विष्णु के मन के अनुकूल आचरण करनेवाली, सृष्टि के सभी जीव आपकी कृपा की कामना करते हैं। आप सबको मनोनुकूल फल देने वाली हैं। हे देवी! आपके चरण-कमल सदैव मेरे हृदय में स्थित हों ॥24॥
  • जो कमल पर अपने सुंदर रूप के साथ, चौड़े कूल्हे और कमल के पत्ते की तरह आँखों के साथ खड़ी है। उसकी गहरी नाभि (चरित्र की गहराई का संकेत) अंदर की ओर मुड़ी हुई है, और उसकी पूर्ण छाती (बहुतायत और करुणा का संकेत) के साथ वह थोड़ी झुकी हुई है; और उसने शुद्ध सफेद वस्त्र पहने हैं ॥25॥
  • जो विभिन्न रत्नों से जड़ित श्रेष्ठ दिव्य हाथियों द्वारा स्वर्ण कलश के जल से स्नान किया जाता है, उसके हाथों में कमल के साथ कौन शाश्वत है; जो सभी शुभ गुणों के साथ संयुक्त है; हे माता, कृपया मेरे घर में निवास करें और इसे अपनी उपस्थिति से मंगलमय बनाएं ॥26॥
  • समुद्र के राजा की बेटी माँ लक्ष्मी को नमस्कार। जो श्री विष्णु के निवास क्षीर सागर (दूधिया महासागर) में निवास करने वाली महान देवी हैं। जो देवों द्वारा उनके सेवकों के साथ सेवा की जाती है, और जो सभी लोकों में एक प्रकाश है जो हर प्रकटीकरण के पीछे अंकुरित होता है ॥27॥
  • जिनकी सुंदर कोमल दृष्टि की कृपा मात्र से भगवान ब्रह्मा, इंद्र और गंगाधर (शिव) महान हो जाते हैं। हे माँ, आप तीनों लोकों में कमल की तरह विशाल परिवार की माँ के रूप में खिलती हैं। आप सभी के द्वारा प्रशंसा की जाती है और आप मुकुंद के प्रिय हैं ॥28॥
  • हे माता, आप विभिन्न रूपो मे – सिद्ध लक्ष्मी, मोक्ष लक्ष्मी, जय लक्ष्मी, सरस्वती श्री लक्ष्मी और वर लक्ष्मी, आप मुझ पर हमेशा कृपा करें ॥29॥
  • आप कमल पर खड़े होते हैं और आपके चार हाथों से – पहला वर मुद्रा, दूसरा अंगकुशा , तीसरा पाशा और चौथा अभिति मुद्रा – कृपा बरसाते हैं, बाधाओं के दौरान मदद का आश्वासन देते हैं, हमारे बंधनों को तोड़ने और निर्भयता का आश्वासन हैं। मैं आपकी पूजा करता हूं, ब्रह्मांड की देवी, जिनकी तीन आंखों से लाखों नए उगते सूरज (यानी अलग-अलग दुनिया) दिखाई देते हैं ॥30॥
  • जो सभी शुभ, स्वयं में शुभ, सभी शुभ गुणों से परिपूर्ण, और भक्तों के सभी उद्देश्यों (पुरुषार्थों – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) को पूरा करने वाले हैं। शरण देने वाली और तीन आंखों वाली देवी, हे नारायणी, मैं आपको प्रणाम करता हूं, मैं आपको प्रणाम करता हूँ हे नारायणी; मैं आपको प्रणाम करता हूँ हे नारायणी ॥31॥
  • हे त्रिभुवनेश्वरी! हे कमलनिवासिनी! आप हाथ में कमल धारण किए रहती हैं। श्वेत, स्वच्छ वस्त्र, चंदन व माला से युक्त हे विष्णुप्रिया देवी! आप सबके मन की जानने वाली हैं। आप मुझ दीन पर कृपा करें ॥32॥
  • भगवान विष्णु की प्रिय पत्नी, क्षमा की मूर्ति – क्षमास्वरूपिणी, माधवप्रिया, अच्युतवल्लभा, भूदेवी, लक्ष्मी देवी मैं आपको बारंबार नमन करता हूँ ॥33॥
  • हम विष्णु पत्नी महालक्ष्मी को जानते हैं तथा उनका ध्यान करते हैं। वे लक्ष्मीजी सन्मार्ग पर चलने के लिये हमें प्रेरणा प्रदान करें ॥34॥
  • इस लक्ष्मी सूक्त का पाठ करने से व्यक्ति श्री, तेज, आयु, स्वास्थ्य से युक्त होकर शोभायमान रहता है। वह धन-धान्य व पशु धन सम्पन्न, पुत्रवान होकर दीर्घायु होता है ॥35॥
  • ऋण, रोग, दरिद्रता, पाप, क्षुधा, अपमृत्यु, भय, शोक तथा मानसिक ताप आदि – ये सभी मेरी बाधाएँ सदा के लिये नष्ट हो जाएँ ॥36॥
  • यह महालक्ष्मी का सार वास्तव में परम ज्ञान है। हम महान देवी के दिव्य सार को उनका ध्यान करके जान सकते हैं, जो श्री विष्णु की पत्नी हैं। लक्ष्मी के उस दिव्य सार को हमारी आध्यात्मिक चेतना को जगाने दो। ओम शांति शांति शांति ॥37॥